【 RNI-HIN/2013/51580 】
【 RNI-MPHIN/2009/31101 】
28 Nov 2019
अनम इब्राहिम
मौज़ूदा दौर में हिंदुस्तान के तमाम मुसलमानों को वतन के फ़र्जी रखवालो ने राष्ट्र विरोधियों का अमलीजामा पहना रखा है ऐसे हालातो में आतंकवादी, देश के ग़द्दार, हिन्दू धर्म के दुश्मन, पाकिस्तान समर्थक, गऊ मांस खाने वाले, इस तरह के फ़िजूल इल्ज़ामों को ज़बरन खुले मंच पर हिंदुस्तानी मुसलमानों पर बेवजह थोपा जा रहा है बात यहीँ ख़त्म नही हो पा रही है देशभर में चन्द सियासी नफ़रत की भड़काऊ चिंगारियाँ अच्छी खासी इंसानी भीड़ को अंधभगतो की कतार में खड़ा कर दे रही है और फिर आम भीड़ के दिलो में मुसलमानों के लिए नफ़रतों के शोले इस हद तक सुलगने लगते है कि जैसे ही कहीं शक की निगाह से किसी मुस्लिम दाड़ी टोपी वाले को तन्हा देखा तो इस हद तक धोते है कि बेक़सूर इंसान का मुसलमान होना मानो जैसे आदमख़ोर होना हो गया हो भीड़ अगर इंसानियत पर भड़के तो समाज मे सुधार आने की अलामत है और अगर भीड़ मज़हब के नाम पर भड़के तो उसके क्रोध पर क़ाबू पाना जंगल मे लगी आग को भुझाने जैसा है चाहे कोई भी मज़हब हो- मज़हब का मर्तबा इंसान के मन से जुड़ा होता है और जब मन मे ही लगातार कोई जहर भरता रहे तो किसी को भी भीड़ का हिस्सा बनने में देर नही लगती।
अनम इब्राहिम
मौज़ूदा दौर में हिंदुस्तान के तमाम मुसलमानों को वतन के फ़र्जी रखवालो ने राष्ट्र विरोधियों का अमलीजामा पहना रखा है ऐसे हालातो में आतंकवादी, देश के ग़द्दार, हिन्दू धर्म के दुश्मन, पाकिस्तान समर्थक, गऊ मांस खाने वाले, इस तरह के फ़िजूल इल्ज़ामों को ज़बरन खुले मंच पर हिंदुस्तानी मुसलमानों पर बेवजह थोपा जा रहा है बात यहीँ ख़त्म नही हो पा रही है देशभर में चन्द सियासी नफ़रत की भड़काऊ चिंगारियाँ अच्छी खासी इंसानी भीड़ को अंधभगतो की कतार में खड़ा कर दे रही है और फिर आम भीड़ के दिलो में मुसलमानों के लिए नफ़रतों के शोले इस हद तक सुलगने लगते है कि जैसे ही कहीं शक की निगाह से किसी मुस्लिम दाड़ी टोपी वाले को तन्हा देखा तो इस हद तक धोते है कि बेक़सूर इंसान का मुसलमान होना मानो जैसे आदमख़ोर होना हो गया हो भीड़ अगर इंसानियत पर भड़के तो समाज मे सुधार आने की अलामत है और अगर भीड़ मज़हब के नाम पर भड़के तो उसके क्रोध पर क़ाबू पाना जंगल मे लगी आग को भुझाने जैसा है चाहे कोई भी मज़हब हो- मज़हब का मर्तबा इंसान के मन से जुड़ा होता है और जब मन मे ही लगातार कोई जहर भरता रहे तो किसी को भी भीड़ का हिस्सा बनने में देर नही लगती।
फिंर चाहे ट्रेन हो सड़क हो या फुटपाथ बस शक से शुरुवात होती है और लात जूतों से रौंदकर मौत पर अंत हो जाती हैं। मुसलमानों के तमाम हालातो के क़सूरवार मैं अंधभगतो से ज़्यादा इस दौर के उलेमाओं को भी मानता हूँ जो इस क़ोम कि रहबरी करने में सालो से असक्षम साबित हो रहे है और सियासतों के हुक्मरानों को खुश करने में मुक़म्मल सक्षम होते नज़र आते है ऐसा नही है कि मैं उलेमा-ए-दीन की कद्र नही करता बल्कि मेरे दिल के सबसे ऊंचे मक़ाम पर उलेमाओं का क़द है लेकिन उनको बताना चाहता हूं कि आप की आपसी रंजिशों ने, फ़िरक़ागिरी ने इलाक़े के मज़हबी ठेकेदारी के ओहदों की होड़ ने आप को कहीं न कहीं सियासत से मिला दिया है और इधर आप की रहबरी के भरोसे बैठी पूरी क़ोम गुमराही की गहराई में डूब रही है। इस्लाम की छवि धुंधली की जा रही है, लाखों उलेमा दिन की सरपरस्ती के बाद भी आम मुस्लिम अनाथ की तरह बगैर सरपरस्ती के जिए जा रहा है। जागो ठेकेदारों जागो यह मज़हब सिर्फ सियासत करने और समाज में धार्मिक ओहदे पाने के लिए ही नही है ये तो तमाम आलम के इंसानों को राहत परोसने वाला मजहब है आज ज़्यादातर समाज के गुमराह लोग मुसलमानों से बेइंतेहा नफ़रत करने लगे है इस कि ख़ास वजह हिंदुस्तानी मुसलमानो में सिर्फ एक अमल ही ईबादत का इज़तेमाई बचा है इबादतखानो में ही हम सामूहिक शक़्ल में मुसलमान दिखते है बाकी हम सामाजिक कार्य ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ अकेले दुकेले इम्फरादि निजीतौर पर करते है। सामाजिक कार्यो में भी हमारा अमल सामूहिक इज़तीमाई होने से हम नफ़रतों को धो देंगे और इंसानियत के लिए खेर की रौशनी बीखेरने वाले मजहब-ए-इस्लाम पर उंगलियाँ उठने रोक देंगे इस के लिए मुस्लिम जवानों को अपनी इबादतों के साथ सामाजिक जुम्मेदारियों को भी ओढ़ लेना चाहिए..
“अपने अपने इलाक़ो में हर मज़हबी कार्यक्रमो में सेवा की मंशा से सामूहिक रूप से टोपी लगाकर जाना चाहिए”
“शहरवासियों के बीच टोपी लगाकर खिदमतगार सिपाही बनकर रहना चाहिए”
“हर तबके के जरूरतमंदों के काम आना”
“रास्ते पर जाम लगे तो ट्रैफिक सम्भालने के लिए सड़कों पर टोपियां लगाकर उतर जाना”
“बुज़ुर्ग बच्चों और औरतों को सड़क पार करवाने वाला टोपीधारी हो”
“रास्ते पर पड़े कांटो को उठाने वाला टोपीधारी हो”
“अपने से पहले दूसरे वाहन को जाने के लिए जगह देने वाला भी टोपीधारी हो”
यारो कोशिशों से नदीयों के रुख बदल जाते है। क्या हम कोशिशों से रूठे हुए भाईयों के दिल नही जीत सकते?
“ईबादत से जन्नत मिलती है और ख़िदमत से ख़ुदा लोगो की सेवा करना अल्लाह की हर एक मख्लूक़ पर रहम करना शहर में अमनो अमान क़ायम रखना शहर भर के दिलो में मोहब्बतों के फूल खिलाना देश और शहर की सुरक्षा के लिए अपनी जान को दांव पर लगाना शहर में कहीं भी आपसी नफ़रत भड़कने से पहले भाईचारे के ठन्डे ठन्डे पानी से बुझाना ये सब इंसानियत की ख़िदमत के साथ साथ एक नफ़्ली ईबादत भी है दोस्तों देशभर में शांति की शमा जलाने की गरज़ से जमीअत उलेमा-ए-हिन्द की पहल में भारी तादात में सभी शहरवासी शिरक़त करे हो सकता है इस अमन मार्च को ही ईश्वर शहर की शांति का ज़रिया बना दे।”
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